अशोक ओझा: हम करें तो पाप, तुम करो तो जाप। यह कहावत जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव पर पूरी तरह से चरितार्थ होती है। पिछले कई दशकों से जिला पंचायत अध्यक्ष एवं ब्लाक प्रमुख चुनाव सत्ता का माना जाता है। जो भी दल प्रदेश की सत्ता पर काबिज होता है वह साम, दाम दंड, भेद की नीति पर चलते हुए अपनी पार्टी के अध्यक्ष व प्रमुख पद पर पार्टी कार्यकर्ताओं को विजयी बनाने के लिए काम करता है। पुराना इतिहास उठाकर देखा जाये तो यह बात सही साबित होती है। इस चुनाव में सबसे बड़ा काम पैसा करता है। गाजियाबाद जिले में अर्से बाद कम पैसे में चुनाव हुआ है। अन्यथा यहां पर बोली बढ़ती रहती है। यदि इस बार भी चुनाव हो जाता तो यहां पर भी चुनाव महंगा हो जाता। जब तक सत्ता रहती है तब तक उस पार्टी के प्रमुख एवं जिला पंचायत अध्यक्ष होते हैं। यदि सत्ता बदल जाये तो या तो अध्यक्ष एवं प्रमुखों की निष्ठा बदल जाती है। यदि निष्ठा नहीं बदली तो अध्यक्ष एवं प्रमुखों को अविश्वास प्रस्ताव लाकर हटा दिया जाता है। मुझे याद है सपा के शासन में एक एमएलसी ने अपने भाई को जिला पंचायत अध्यक्ष बनवा दिया था। उस समय विपक्षियों को इतना डरा दिया गया था कि उन्होंने सरेंडर कर दिया। हालांकि सपा के हारने एवं भाजपा के जीतने के बाद भाजपा अध्यक्ष पद पर आसीन हो गई थी। जिस दिन जिला पंचायत सदस्यों को प्रमाण पत्र मिलने थे उस दिन बसपा के एक जिला पंचायत सदस्य की बात सोलह आने सही लगती है। उनसे पूछा गया कि क्या वे चुनाव लड़ेंगे? इस पर उनका जवाब था भाई साहब यह चुनाव सत्ता का होता है। इसलिए ज्यादा सोचना बेवकूफी होगी। भाजपा के 17 जिलों में जिला पंचायत अध्यक्ष निर्विरोध बन रहे हैं। इसके साथ ही आधे से ज्यादा जिलों में उसके अध्यक्ष बनना तय है। लेकिन पैसा खर्च करने के बाद भी जो अध्यक्ष चुने जायेंगे उन्हें यह खतरा रहेगा यदि सत्ता बदल गई तो कुर्सी भी नहीं बचेगी। इसलिए सत्ता, पैसे, ताकत के प्रयोग की बातेें केवल उसी को शोभा देती है जो इसका दुरुपयोग न करें।