Dainik Athah

… ताकि विलुप्त न हों गांगेय डॉल्फिन


छह साल से स्वच्छ होती गंगा में बढ़ रही इस अनोखी जलीय जीव की संख्या
उत्तराखंड से लेकर पश्चिम बंगाल तक इनदिनों गंगा में डॉल्फिन की अठखेलियां देखी जा सकती हैं। इन गांगेय डॉल्फिन का यूं सुलभता से दिखना इस बात का ठोस प्रमाण है कि विगत वर्षों में गंगा साफ और निर्मल हुई है, क्योंकि जल की गुणवत्ता में सुधार का सबसे अच्छा मानक जलीय जीव-जंतु का जीवन ही है। देश में गंगा के अलावा ब्रह्मपुत्र में भी डॉल्फिन पाई जाती हैं। इन दोनों नदियों की सहायक नदियों जैसे सोन, गंडक, चंबल, घाघरा, कोसी में भी डॉल्फिन को देखा जा सकता है। देश की नदियों में डॉल्फिन की संख्या की बात करें तो सरकारी आंकड़ा 3700 का है। हमारी नदियों में डॉल्फिन बनी रहें, इसके लिए हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रोजेक्ट डॉल्फिन की घोषणा की है।

नदियों की डॉल्फिन बेहद अनोखी प्रजाति है, जो मुख्य रूप से एशिया और दक्षिण अमेरिका की नदियों में पाई जाती है। बिना किसी हस्तक्षेप और बाधा के डॉल्फिन अपने दम पर पनपने में सक्षम हैं। गांगेय प्रजाति के लिए सीमाएं कोई मायने नहीं रखतीं। इन्हें जहां भी संभावनाएं दिखती हैं, यह वहां अपना बसेरा बना लेती हैं। ये सामान्यत: 10-12 के समूह में रहती हैं। गांगेय डॉल्फिन की आंखें तो होती हैं, लेकिन ये करीब-करीब अंधी होती है। इसलिए ये अल्ट्रासोनिक वेव से किसी चीज की मौजूदगी का पता लगाती हैं। इसी वेव से इन्हें पता चलता है कि शिकार कितना बड़ा और कितना करीब है। ये 60 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से तैर सकती हैं। डॉल्फिन सीटी बजाने वाली एकमात्र जलीय जीव भी है। यह म्याऊं-म्याऊं से लेकर मुर्गे की तरह आवाज समेत 600 आवाजें निकाल सकती है।

डॉल्फिन सदैव से इंसानों के लिए कौतूहल का विषय रही है। अधिकांश लोग इसे मछली मानते हैं, लेकिन यह मछली नहीं, एक स्तनधारी जलीय जीव है। यह भी माना जाता है कि पृथ्वी पर डॉल्फिन का जन्म दो करोड़ साल पहले हुआ था। डॉल्फिन ने लाखों वर्ष पूर्व जल से जमीन पर बसने की कोशिश की, लेकिन धरती का वातावरण उसे रास नहीं आया और फिर उसने वापस पानी में ही बसने का मन बनाया। यह पानी के अंदर से 10-15 मिनट रह सकती है, लेकिन सांस लेने ऊपर ही आती है।

वैसे वन्य प्राणियों के संरक्षण के लिए पहला राज्यादेश ईसा पूर्व 232 में मगध के सम्राट अशोक ने अपने पंचम शिलालेख में पारित किया था। इस राज्यादेश में जिन प्राणियों के संरक्षण का उल्लेख था, उसमें गांगेय डॉल्फिन भी थी। संभवत: दुनिया में वन्य और जलीय प्राणियों के संरक्षण के लिए पारित होने वाला यह पहला राज्यादेश था। अब नमामि गंगे के डॉल्फिन संरक्षण अभियान को राष्ट्रीय पटल में लाने के प्रयासों के मद्देनजर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रोजेक्ट डॉल्फिन की घोषणा की है, जो प्रोजेक्ट टाइगर के अनुरूप है। हालांकि, गांगेय डॉल्फिन की कम होती संख्या के चलते मई, 2009 को पर्यावरण मंत्रालय ने गांगेय डॉल्फिन को राष्ट्रीय जलजीव घोषित किया था।

ऐसा पहली बार हो रहा है, जब मत्स्य क्षेत्र डॉल्फिन संरक्षण से जुड़े मसलों का नेतृत्व कर रहा है। केंद्रीय अंतरर्स्थलीय मात्स्यिकी अनुसंधान संस्थान (उकऋफक) के माध्यम से नमामि गंगे के तहत मत्स्य संरक्षण के प्रयासों से डॉल्फिन के आवासों में शिकार पर रोका जा सकेगा, जिससे इनकी आबादी में वृद्धि होगी। देश में आधी और दुनिया में एक तिहाई नदी की डॉल्फिन बिहार में है। यही कारण है कि देश का इकलौता विक्रमशीला गांगेय डॉल्फिन आश्रयणी भी बिहार में है, जो 60 किलोमीटर लंबा है। अब पटना में 27.66 करोड़ रुपए की लागत से देश का एकमात्र डॉल्फिन रिसर्च सेंटर बनेगा। साथ ही, उप महाद्वीप में डॉल्फिन संरक्षण के लिए भारत, बांग्लादेश, नेपाल और म्यांमार के विशेषज्ञ साथ आ रहे हैं।

बात करें गांगेय डॉल्फिन के सबसे बड़े प्राकृतिक आवास गंगा की तो यह केवल आस्था का विषय और वाटर रिसोर्स नहीं है। हमारे लिए गंगा जो है, उसके बहुत सारे मायने हैं। देश को एक सूत्र में बांधने में गंगा की महत्वपूर्ण भूमिका है। देश की 40 प्रतिशत से अधिक आबादी का आधार गंगा ही है। गांगेय डॉल्फिन समेत सभी जलीय जीव सुरक्षित रहें, इसके लिए गंगा की सफाई और विकास के लिए सरकार युद्धस्तर पर कार्य कर रही है। कुछ समय पहले केंद्रीय जलशक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने लोकसभा में बताया था कि गंगा में गंगोत्री से लेकर गंगा सागर तक अपघटित (डिजॉल्व्ड) आॅक्सीजन का स्तर पूरी तरह मानकों के अनुरूप है। नहाने के लिए गंगा का जल गुणवत्ता के प्राथमिक मानकों की अधिसूचित सीमा में है। गंगा की स्वच्छता के लिए 305 परियोजनाएं मंजूर की गई हैं। इनमें से 109 परियोजनाएं पूरी हो चुकी हैं। शेष परियोजनाएं कार्यान्वयन के विभिन्न चरणों में हैं।

अनोखी जलीय जीव गांगेय डॉल्फिन को बचाने के प्रयास सरकार के स्तर पर तो हो रहे हैं, लेकिन जन-जागरुकता भी बेहद जरूरी है। डॉल्फिन का शरीर टॉक्सिक और हेवी मेटल से भरा हुआ है। इसके मांस में तेज दुर्गंध होती है। उसे खाने से लोग बीमार पड़ सकते हैं, लेकिन इसके तेल को लेकर भ्रांतियां हैं, जिनकी वजह से इसकी तस्करी बहुत होती है। विशेषकर बांग्लादेश की सीमा से लगे पाकुड़ क्षेत्र में इसका शिकार तेल के लिए किया जाता है। ऐसी भ्रांतियों को दूर करन की सख्त आवश्यकता है, क्योंकि जब तक डॉल्फिन समेत सभी जलीय जीव निर्भीक होकर विचरण नहीं करते, तब तक कोई भी प्रोजेक्ट सार्थक नहीं कहा जा सकता।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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