हिंदी फिल्मों में गीत लिखने वाले जावेद अख्तर भी क्या शायर मुन्नवर राणा के नक्शे कदम पर चल दिये हैं। उनके ताजा बयान तो इसी तरफ इशारा करते हैं। जावेद का नाम गीतकारों में बड़े सम्मान से लिया जाता रहा है। लेकिन जिस प्रकार उन्होंने आरएसएस जैसे राष्टÑवादी संगठन की तुलना तालिबान से की है वह उनकी तुच्छ मानसिकता को दर्शाती है। जावेद अख्तर जिस प्रकार भारत में आजाद रहकर कुछ भी बोलने की आजादी है उसी प्रकार वे तालिबान शासित अफगानिस्तान जाकर बोलकर दिखायें तो मानेंगे। वे तालिबान शासन में कुछ बोलना तो दूर अपनी जान की भीख मांगते नजर आयेंगे।
यहां वे राष्टÑवादी संगठन एवं वह संगठन जिसके स्वयं सेवक हर आपदा के समय खाना पीना भूलकर केवल सेवा कार्य में जुट जाते हैं उसकी तुलना तालिबान से कर रहे हैं। भारत में राजनीतिक प्रतिद्वंदता के बावजूद इस प्रकार की टिप्पणी तो किसी दल के नेता ने भी संघ के ऊपर नहीं की होगी। कवि, शायर एवं गीतकार होने का अर्थ यह तो नहीं कि जो मुंह में आये उसे उसे बक दो। जावेद एवं मुनव्वर जैसे लोग ही है जो अवार्ड वापसी गैंग का हिस्सा बनते हैं तथा पूरे विश्व में भारत जैसे देश को बदनाम करते हैं। असहिष्णुता भारत में नहीं है। लेकिन इन जैसे गीतकारों, लेखकों एवं शायरों के दिलों में अवश्य है। यहीं कारण है कि ऐसे लोग गाहे बगाहे कुछ न कुछ ऐसा बोलते हैं जिससे देश की सहिष्णुता समाप्त हो सके। पिछले दिनों जब मैंने मुनव्वर पर मंथन लिखा था उस समय मेरे कुछ चाहने वालों ने कहा था ऐसे लोगों के बारे में न ही लिखो तो बेहतर है। लेकिन जावेद की भाषा ने फिर से लिखने पर विवश कर दिया। मेरा मानना है कि ऐसे लोगों का सामाजिक बहिष्कार होना चाहिये। उनके गीत जिस फिल्म में हो उसका भी बहिष्कार हो।