कविता
धारण के कारण ही धरती,पृथ्वी भू कहलाती है।
अगणित जीव निजीर्वों का आश्रय बन जाती है।
नदी, तालाब, सागर, हिमखंड ,बहते जल वेग प्रचंड।
वक्ष अमृत से पले सभ्यता ,भूगर्भ जलनिधि अनंत।
अहर्निश गति से गतिमान कहीं रात कहीं दिनमान।
वायु पवन समीर सतत भरते रहते जीवों में प्राण।
जलचर, नभचर भूचर सबका ही मूल यह धरणी।
देव दानव गंधर्व यक्ष सबकी भूमे आप वेतरणी।
अन्नपूर्णा ,अक्षयपात्र , वनस्पति का भंडार तुम्हीं।
रतन गर्भा, मूल में अग्नि, स?जन और संहार तुम्हीं।
अंतरिक्ष के घर में तुमने , तोड़ी कब मयार्दा है।
सूरज ,चंद्र,नक्षत्र सहित निज अक्ष भी साधा है।
रहा तोड जीवन मयार्दा, वसुंधरा अकुलाई है।
हुआ स्वार्थी मनुज प्रतिफल घोर विपत्ति छाई है।
चेता रही है प्रकृति सभलो ,अभी समय शेष है।
नहीं संभले तो निश्चित मानो सब अवशेष है।।
कवि
डॉ प्रेम किशोर ‘निडर’
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बेहद खूबसूरत विवरण दिया है। सत्यवचन