नेह नही है यदि दीपक में, तो फिर बाती ही जलने दो, दीप शिखा के बुझते बुझते, शायद सूर्य किरण मिल जाए। मन के थके हुए पंछी ने, जिस डाली पर नीड़ बनाया, उसी डाल पर गरज-गरज कर, मेघों ने पत्थर बरसाया, पंख हीन हो गया पखेरू, फिर भी फड़-फड़ कर उड़ ने दो, साथ पवन के बहते-बहते, शायद नंदनवन मिल जाए। बे मौसम पतझड़ ने आकर, उपवन में अंगार गिराए, कलियों कों मुस्कान छीन ली, डाल-डाल पर शूल उगाए, मधु के प्रेमी मन भॅंवरे को, काँटो में उलझ रहने दो, चुभन शूल की सहते-सहते, शायद कहीं सुमन मिल जाए। पीडाओं की बाँध पोटली, चला जा रहा दीन सुदामा, नंगे पाँव न सर पर पगड़ी, फटा हुआ है तन का जामा, दीन दुखी को दीन बन्धु से, डर की पीडा़ तो कहने दो, करुण कहानी कहते-कहते, शायद कहीं शरण मिल जाए। दो दिन नयनों में घन उमड़े, दो दिन झड़ी लगी सावन की, चार दिनों की प्रदर्शनी में, भीग गई तस्वीर बदन की, रंग तो बिगड़ गया है फिर भी, घूमिल रेखाएँ रहने दो, नव रेखाएँ बनते-बनते, शायद नव जीवन मिल जाए। जाने किस ज्वाला ने उर के, चंदनवन में आग लगादी, अरमानों की चिता जलाकर, तन की सौरभि धूल मिलादी, मरुस्थल है जीवन पथ फिर भी, आषा की गंगा बहने दो, अंगारों पर चलते-चलते, शायद नील गगन मिल जाए। लगा रहा है कोई गोते, अब भी उस खारी सागर में, काई मार रहा है काँकर, उस तन की रीती गागर में, रीती माखन की मटकी में, ग्वालिन को जल ही भरने दो, पनघट पर पग धरते-धरते, शायद मनमोहन मिल जाए।।
स्व.जगदीश पंकज