जब जब देश अथवा प्रदेश में चुनाव आते हैं तब तब राजनीतिक दल जाति जोड़ो- समाज तोड़ो के अभियान में जुट जाते हैं। यह जो लिखा जा रहा है उससे अवश्य ही जाति की राजनीति करने वालों के पेट में दर्द अवश्य हो जायेगा। मैं चाहता हूं कि यह दर्द नेताओं एवं दलों के साथ ही आम जन मानस में भी हो। चुनाव से अलग हटते ही सभी समाज को जोड़ने की बात करने लगते हैं। खासकर सत्तारूढ़ दल। लेकिन चुनाव में जातियों के सम्मेलन शुरू हो जाते हैं। कहा जा रहा है कि ब्राह्मण भाजपा से खफा है। यह सुनते सपा हो अथवा बसपा दोनों ही ब्राह्मणों के सम्मेलन करने में जुट गये। ब्राह्मण सम्मेलनों को प्रबुद्ध सम्मेलन नाम दिया जा रहा है।
ब्राह्मण को प्रबुद्ध माना जाता है। क्या पूरा ब्राह्मण समाज की प्रबुद्ध की श्रेणी में आता है। पूर्व एवं मध्य उत्तर प्रदेश में हो सकता है कि ब्राह्मण किसी दल विशेष से नाराज हो। लेकिन जिस पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हम रहते हैं वहां की स्थिति देखें तो यह प्रबुद्ध वर्ग एकजुट नहीं है। यदि इस वर्ग की जाति का कोई प्रत्याशी मैदान में है तो थोड़ा बहुत असर पड़ सकता है। ब्राह्मण हर दल में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहा है ऐसे में क्या यह संभव है कि यह वर्ग किसी एक दल के पाले में चला जायेगा। इस प्रकार के सम्मेलन करके राजनीतिक दल केवल समाज को तोड़ने का काम कर रहे हैं। यह प्रवृत्ति भविष्य के लिए घातक हो सकती है। हालांकि सत्तारूढ़ दल भी इसमें पीछे नहीं है। ब्राह्मण के नाम पर दूसरे दलों के ऐसे लोगों को लाया जा रहा है जिन्हें आम बोलचाल की भाषा में फूका कारतूस कहा जाता है। जबकि इस दल में ब्राह्मणों की भरमार है। जरुरत है उनका उपयोग करने की। समाज में कुछ ऐसे भी लोग है जो जाति के नाम पर हर दल में नजर आ जायेंगे। ऐसे लोगों से भी दलों को बचना होगा। ये लोग पूरे समाज के ठेकेदार बन जाते हैं। दलों को जाति जोड़ों के स्थान पर समाज को जोड़ने पर विचार करना चाहिये।