कविता मैं हिंदी हूं , कहते हैं भारत के ललाट की बिंदी हूं, मैं हिंदी हूं। जोड़ रही हूं जन को जन से, भारत के कण-कण को मन से। कितनी हमले सहें है मैंने, फिर भी देखो जिंदी हूं, मैं हिंदी हूं। हिमगिर से सिंधु तक मैंने, भावों का संसार रचाया तुली मिटाने पर कितनी ही, देखों मुझको काली छाया, गुजराती बांग्ला उड़िया, मैं ही मराठी सिंधी हूं, मैं हिंदी हूं। भारत के जन गण का हेतु हूं, राजा से प्रजा का सेतू हूं, मां की लोरी का भाव हूं, संवादों की में ही छांव हूं, फिर भी क्यों ? मैली कुचेली गंदी हूं, मैं हिंदी हूं। अपने ही अपनों में जाने , कैसे मैं हीन हो गई, विश्व पटल पर गूंजी हूं, अपने घर तोहीन हो गई, औपचारिकताओं में फंसी हूं ऐसे, जैसे कोई सोन चिरैया बंदी हूं। मैं हिंदी हूं।।
कवि: डॉ. प्रेम किशोर शर्मा,निडर