Dainik Athah

भाजपा के दलित नेताओं को पार्टी से ज्यादा अपने रूतबे की चिंता

  • भाजपा से छिटक रहे दलित मतदाता बन रहे चिंता का कारण
  • जिन दलित नेताओं को भाजपा ने आसमान पर पहुंचाया वे क्यों नहीं जोड़ पाये अपने समाज को
  • भाजपा में हो रहा दलित नेताओं की भूमिका पर मंथन

अशोक ओझा
लखनऊ।
लोकसभा चुनाव 2024 में दलित मतदाताओं के भाजपा से छिटकने पर पार्टी के साथ ही संघ में भी चिंता है। चिंता इस बात को लेकर भी है कि दलित नेता के नाम पर जिन नेताओं को भाजपा ने आगे बढ़ाया उन्हें पार्टी से ज्यादा अपने खुद के रूतबे की चिंता रही। चुनाव के दौरान विपक्ष के आरोपों की काट करने का इन नेताओं ने कोई प्रयास नहीं किया। भीषण गर्मी के मौसम में ये नेता भी वातानुकूलित कमरों में आराम फरमाते रहे।

बता दें कि दलित और खासकर जाटव मतदाता सबसे पहले कांग्रेस के साथ रहा है। लेकिन जब बसपा की ताकत बढ़ी तो यह मतदाता बसपा का हो गया। भाजपा और राष्टÑीय स्वयं सेवक संघ की दलित और खासकर जाटव मतदाताओं पर नजर रही है। पार्टी के प्रयासों के फलस्वरूप जाटव मतदाता 2014 के लोकसभा चुनाव से भाजपा के साथ जुड़ना शुरू हुआ। इसके बाद 2017, 2019 एवं 2022 में भी बसपा से छिटक कर यह मतदाता भाजपा के पक्ष में नजर आया। लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव में इनका कुछ हिस्सा बसपा में लौट गया तो एक बड़ा हिस्सा कांग्रेस- इंडिया गठबंधन की तरफ जाता नजर आया है।

राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो इस बार दलित और जाटव मतदाताओं के भाजपा से छिटकने का बड़ा कारण कांग्रेस का यह मुद्दा उठाना था कि भाजपा को 400 सीटें मिलने पर संविधान को बदल देंगे तथा आरक्षण समाप्त कर देंगे। कांग्रेस की सहयोगी सपा समेत अन्य दलों ने भी कांग्रेस के सुर में सुर मिलाया तो दलित समाज भी इसका शिकार हो गया और कांग्रेस और सपा की बातों पर इन्होंने भरोसा करना शुरू कर दिया। भाजपा के बड़े नेता तो जनसभाओं एवं प्रेस वार्ताओं में इसकी काट करते नजर आये, लेकिन जिन दलित नेताओं को अपने समाज में जाकर कांग्रेस- सपा की अफवाहों की काट करनी चाहिये थी वह नहीं कर पाये।

यदि देखें तो भाजपा ने प्रदेश उपाध्यक्ष कांता कर्दम को सांसद और महापौर का चुनाव लड़वाया। वे दोनों चुनाव हार गई, बावजूद इसके उन्हें राज्यसभा भेजा गया। प्रदेश उपाध्यक्ष अलग से। लेकिन वे अपने समाज को ही नहीं पार्टी के साथ नहीं जोड़ सकी। चुनाव के दौरान अपने समाज में जाकर वे संविधान और आरक्षण के मुद्दे पर समझाने में विफल रही। इसी प्रकार यदि देखें डा. जसवंत को भाजपा ने 2014 में नगीना से सांसद बनाया था, वे भी अपने घर में बैठकर आराम फरमाते रहे।
इसी कड़ी में बुलंदशहर से तीसरी बार सांसद बनें भोला सिंह ने भी विपक्ष की बातों का खंडन करने का कोई प्रयास ही नहीं किया। बेबी रानी मौर्य को भाजपा ने पहले राज्यपाल, इसके बाद एमएलसी और मंत्री बनाया, लेकिन उनकी स्थिति भी अन्य दलित नेताओं की तुलना में कोई बेहतर नहीं रही। ठीक ऐसी ही स्थिति भाजपा की हापुड़ जिला पंचायत अध्यक्ष अमृता कुमार की रही है। उनके पति भी दो दो विधानसभा चुनाव लड़ चुके हैं, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात रहा।

भाजपा के एक बड़े नेता की टिप्पणी सटीक है कि भाजपा ने इन दलित नेताओं की दशा सुधार दी, लेकिन भाजपा की दशा सुधारने की दिशा में इन्होंने कोई काम ही नहीं किया। ये नेता केवल अपना रूतबा बढ़ाने में लगे रहे। प्रदेश स्तर से लेकर जिलास्तर तक के दलित नेताओं ने अपने समाज और मौहल्लों में जाकर समाज को भ्रमित होने से बचाने के लिए कोई काम नहीं किया। दलित समाज के नेताओं की जिम्मेदारी थी कि वे अपने समाज में जाकर काम करते, लेकिन इनमें से अधिकांश जब भी दौरे लगाते हैं तो उच्च वर्ग के घरों अथवा अपने समाज के भी पैसे वालों के यहां। ऐसे में पार्टी कैसे समाज को अपने साथ कर पाती। अब भाजपा के वरिष्ठ नेताओं की नजरें इन नेताओं पर भी लगी है।


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