Dainik Athah
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  • सर्वस्व समर्पण के बावजूद
  • ‘जाट लैंड’ में आखिर क्यों परवान नहीं चढ़ता नजर आया भाजपा- रालोद गठबंधन
  • जाटों में गठबंधन ही नहीं जाट प्रत्याशियों को लेकर भी नहीं दिखा उत्साह
  • बागपत सीट भी प्रत्याशी के चेहरे पर जीत सकता है गठबंधन
  • जाट गांवों में पड़े वोटों ने राजनीतिक पंडितों को भी उलझाया
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    अशोक ओझा
    मेरठ/ गाजियाबाद। जाट लैंड कहे जाने वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव प्रारंभिक तीन चरणों में संपन्न हो चुके हैं। चुनाव संपन्न होने के बावजूद आम लोगों के सामने यह बड़ा सवाल खड़ा हो रहा है कि आखिर क्या कारण रहा है कि जाटों की पसंद वाले दल भाजपा- रालोद का गठबंधन होने के बावजूद क्यों इन जाटों का गठबंधन से मोह भंग हो रहा है। यह सवाल पश्चिम के जाट बहुल गांवों में हुए मतदान से उभरकर सामने आ रहा है।
    यदि पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश को देखा जाये तो इसे जाट बहुल कहा जाता है। किसान आंदोलन के दौरान जाटों ने सरकार के खिलाफ जब हुंकार भरी तब भाजपा के जाट नेताओं ने अपने प्रबंधन का नजारा भाजपा नेतृत्व के सामने पेश किया और बताया कि जाट भाजपा के साथ है। इसके साथ ही पिछले सात वर्षाें को देखा जाये तो भाजपा ने जाट नेताओं को पद- प्रतिष्ठा से नवाजने में कोई कंजूसी नहीं की। तमाम बिरादरियों का विरोध मोल लेते हुए जाट को भाजपा ने प्रदेश अध्यक्ष, क्षेत्रीय अध्यक्ष से लेकर राज्यसभा, विधान परिषद के साथ ही राज्यमंत्री के दर्जे वाली अनेक कुर्सियां सौंपी। बावजूद इसके जाट भाजपा और खासकर गठबंधन से विमुख से नजर आये।
    इस मामले में जब पड़ताल की गई तो अनेक वरिष्ठ जाट नेताओं से भी बात हुई। जाटों पर अध्ययन करने में माहिर एक शख्स जिनका नाम नहीं खोलूंग कहते हैं कि जाटों को यह गठबंधन रास नहीं आया। भाजपा में काम करने वाले जाट नेताओं को लगा कि इस गठबंधन के चलते उनका भविष्य अंधकारमय हो सकता है। इसके साथ ही रालोद के जाट नेताओं व समर्थकों को यह लगा कि इस गठबंधन के चलते बड़े नेताओं को कुछ हासिल हो सकता है, लेकिन उनके भविष्य का क्या होगा।
    सबसे बड़ी बात जो देखने में आई वह यह कि भाजपा के जाट को तो सभी बिरादरी किसी प्रकार हजम कर लेती है, लेकन रालोद के जाटों को देखा जाये तो वे आक्रामक है इस कारण भाजपा के जाटों के साथ ही भाजपा समर्थकों को यह गठबंधन नागवार गुजरा।
  • पहले भी गठबंधन के कारण भाजपा उठा चुकी है नुकसान
    यदि देखा जाये तो 2009 के चुनाव में भाजपा के तत्कालीन राष्टÑीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह के कार्यकाल में भाजपा ने रालोद से गठबंधन किया था। उस गठबंधन में रालोद तो लाभ में रहा और उसके अध्यक्ष चौधरी अजित सिंह भाजपा के सहयोग से चुनाव जीत गये। रालोद को अन्य सीट भी मिली। लेकिन भाजपा को गठबंधन का लाभ उस समय भी नहीं मिला। जबकि भाजपा ने ही जाटों को आरक्षण भी दिया था।
  • रालोद के जाटों को भी नागवार गुजरा गठबंधन
    यदि रालोद समर्थक जाटों की बात करें तो सपा- बसपा सरकार में जाटों को नुकसान ही हुआ। लेकिन भाजपा के सात वर्ष से अधिक के कार्यकाल को उत्तर प्रदेश में देखा जाये तो जितना जाट समाज को मिला उससे अधिक किसी पार्टी ने जाटों को नहीं दिया। बावजूद इसके जाट भाजपा की तरफ हर वक्त आंख ही तरेरता रहा। चाहे वह रालोद के जाट हो या भारतीय किसान यूनियन के। जानकारों की मानें तो रालोद समर्थकों की सोच यह रही कि हमें जो चाहता है वह आंख दिखाकर ले ही लेते हैं ऐसे में गठबंधन की जरूरत क्यों? इनमें वे जाट भी शामिल है जो सत्ता के विरोध में रहते आये हैं। शायद यहीं कारण रहा कि चुनाव के दौरान भी रालोद समर्थकों से भाजपा वाले दबे से नजर आये।

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