मंत्रिमंडल गठन के बावजूद पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिलों में उत्साह घटा
जिन जिलों से मंत्री नहीं बनें उन जिलों के कार्यकर्ता थकान मिठाने में समझ रहे भलाई
कार्यकर्ता एक- दूसरे से पूछ रहे मेहनत के ऐसे फल की उम्मीद नहीं थी
अशोक ओझा
लखनऊ। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन, जाटों की गोलबंदी के बावजूद भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं ने कड़ी मेहनत से कई जिलों में विपक्षी दलों का सफाया करवा दिया। बावजूद इसके जिन जिलों से विरोधी दलों का सफाया हुआ उनकी ही मंत्रिमंडल में उपेक्षा से पश्चिम के अनेक जिलों के कार्यकर्ता खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं।]
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान यह माना जा रहा था कि गौतमबुद्धनगर से लेकर पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन का असर होगा। इसके साथ ही जाट मतदाता भी भाजपा से नाराज है। लेकिन भाजपा के साथ ही प्रत्याशियों ने भी विपक्षी दलों का सफाया करने में कोई कसर बाकि नहीं रखी। इसी का यह परिणाम हुआ कि गौतमबुद्धनगर, गाजियाबाद, हापुड़ एवं बुलंदशहर जिलों में भाजपा ने क्लीन स्वीप करते हुए सभी विधानसभा सीटें जीतने में सफलता प्राप्त की। इन जिलों में विपक्षी दलों का खाता तक नहीं खुल सका। साहिबाबाद से सुनील शर्मा दो लाख से ज्यादा, नोएडा से प्रदेश उपाध्यक्ष एवं रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के पुत्र पंकज सिंह एक लाख 80 हजार मतों से, मुरादनगर से अजीत पाल त्यागी 98 हजार वोटों, गाजियाबाद शहर से अतुल गर्ग एक लाख से अधिक वोटों से विजयी हुए।
मोदीनगर मेें डा. मंजू शिवाच ने विपरीत परिस्थितियों में उस समय सीट भाजपा की झोली में डाली जबकि पूरी प्रदेश भाजपा इस सीट को हारा हुआ मान चुकी थी। इसमें भाजपा कार्यकर्ताओं के साथ ही डॉक्टर दंपत्ति का चुनाव लड़ने का तरीका सबसे अलग था। लोनी में भाजपा जिलाध्यक्ष को छोड़कर किसी को जीत की उम्मीद नहीं थी। बावजूद इसके गाजियाबाद जिले को किनारे कर दिया गया। ठीक यहीं स्थिति गौतमबुद्धनगर, हापुड़, बुलंदशहर जिलों में थी। लेकिन इन जिलों से भी किसी को मंत्री नहीं बनाया गया।
यदि कार्यकर्ताओं की बात करें तो उन्हें उम्मीद थी कि सुनील शर्मा, पंकज सिंह, अजीत पाल त्यागी एवं डा. मंजू शिवाच में से दो या तीन मंत्री बन सकते हैं। लेकिन उनकी उम्मीदों पर कुठाराघात हो गया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश से अकेले त्यागी अजीत पाल को भी दरकिनार किया गया। इससे त्यागी समाज को झटका लगा है। जबकि त्यागी वोट बैंक भाजपा का माना जाता है।
योगी सरकार के नए मंत्रिमंडल में जातीय व सामाजिक समीकरण साधने में मशक्कत तो खूब हुई लेकिन तमाम असंतुलन भी उभर आए हैं। इससे उन जिलों के भाजपा कार्यकतार्ओं में मायूसी है। प्रदेश मंत्रिमंडल की अधिकतम संख्या 60 ही हो सकती है। मुख्यमंत्री सहित 53 मंत्रियों के जरिए सभी 75 जिलों की भागीदारी संभव नहीं हो सकती है। ऐसे में चर्चा का विषय है कि सभी सीटें जिताने वाले कई जिलों की भागीदारी मंत्रिमंडल में आखिर क्यों नहीं हुई। माना जा रहा है कि इससे सामाजिक समीकरणों पर असर पड़ेगा।
चौंकाने वाली स्थिति कानपुर शहर व लखीमपुर खीरी की रही। कानपुर शहर कभी प्रदेश का वाणिज्यिक केंद्र हुआ करता था। यहां के मतदाताओं ने 10 में से सात सीटें भाजपा को जिताई। लखीमपुर खीरी में केंद्रीय मंत्री के बेटे की गाड़ी से किसानों के कुचलने की दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बावजूद जिले के मतदाताओं ने सभी आठ की आठ सीटें पार्टी को जिता दी। लेकिन मंत्रियों के नाम तय करने वालों को इन जिलों में कोई भी ऐसा सदस्य नहीं दिखा, जिसे मंत्रिमंडल में शामिल किया जा सके। इसी तरह उन्नाव ने सभी 6 में से 6 व कुशीनगर ने 5 में से 5 सीटें भाजपा गठबंधन की झोली में डाली। मगर, इन जिलों को भी मंत्रिमंडल में स्थान नहीं मिल सका।
जबकि बहुत कम अंतर से भाजपा ने बड़ौत सीट जीती वहां से विधायक केपी मलिक, मेरठ जिले से बेहतर परिणाम न आने के बावजूद गुर्जर समाज के सोमेंद्र तोमर, मुजफ्फरनगर से कपिल देव अग्रवाल को मंत्री बना दिया गया। गाजियाबाद जिले से इतनी ही संतुष्टी है कि बसपा से कुछ वर्ष पहले आये भाजपा ओबीसी मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष नरेंद्र कश्यप को एक साथ ही तीन उपहार मिल गये।
इन जिलों में तीन-तीन मंत्री
आगरा, बलिया, कानपुर देहात, वाराणसी व शाहजहांपुर।
इन्होंने सभी सीटें जिताई, मंत्री एक भी नहीं
गाजियाबाद, गौतमबुद्धनगर, हापुड़, बुलंदशहर, लखीमपुर खीरी, गोंडा, उन्नाव, फरुर्खाबाद, एटा, महोबा, हमीरपुर।