उत्तर प्रदेश में इस समय विधानसभा चुनाव चल रहे हैं। दो चरणों का मतदान पूरा हो चुका है। यदि देखा जाये तो चुनाव दर चुनाव राजनेताओं की भाष को लेकर सवाल उठने लगे हैं। प्राय: यह देखा जा रहा है हर चुनाव में राजनेताओं के बोल लगातार बिगड़ रहे हैं। पिछले करीब साढ़े तीन दशक से पत्रकारिता में हूं। उस समय पार्टी को लेकर, उसकी नीतियों को लेकर हमले किये जाते थे। वह भी संयम एवं सभ्य भाषा में है। लेकिन पिछले एक दशक का इतिहास उठाकर देखा जाये तो राजनेताओं के बोल लगातार बिगड़ रहे हैं। एक नेता जब अपने विरोधी पर हमला करते हैं तो उनकी भाषा में तीखापन होता है। जब दूसरी तरफ से जवाब आता है तो वह पहले से अधिक तीखा होता है। यदि आप टीवी पर भी इन नेताओं के भाषण सुन रहे हैं तो भाषण सुनने वालों में अधिकांश की राय यहीं होती है कि अब चुनाव पहला जैसा नहीं रह गया। नेताओं की तीखी जुबान नीचे तक कड़वाहट उत्पन्न करती है। इसमें पुराने नेताओं की बात करें तो वे अब भी संयमित रूप से बोलते हैं। यदि विपक्षी पर हमला भी करते हैं तो सभ्यता के दायरे में। इसके ऊपर भी बहस होनी आवश्यक है। यदि अब नहीं तो देर सबेर सर्वोच्च न्यायालय को ही अन्य मामलों की तरह बदजुबानी पर अंकुश लगाने के लिए निर्देश जारी करने पड़ेंगे। मैं यह बात किसी दल अथवा राजनेताओं के लिए नहीं कह रहा हूं। सभी राजनीतिक दलों पर यह लागू होता है। यदि भाषणों में बोल बिगड़ते रहे तो फिर शांति से चुनाव कैसे संभव है। पश्चिमी बंगाल चुनाव यह बता चुका है। वहां पर चुनाव के बाद जिस प्रकार खूनी खेल खेला गया था वह भी बदजुबानी के कारण ही था। इससे एक दल के कार्यकर्ताओं की सत्ता आने पर वे दूसरे दल के कार्यकर्ताओं पर आक्रामक ही रहते हैं। इस पर सभी को गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।