Dainik Athah

धैर्य के साथ हिंदुओं ने पाया अधिकार

लेखक : कविलाष मिश्रा
वरिष्ठ पत्रकार

  पांच अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अयोध्या में राम मंदिर के लिए भूमिपूजन करेंगे। यह शुभ दिन करीब 500 साल बाद आया है। भारत में मुगलवंश के संस्थापक बाबर ने अपने शासनकाल (1526-1530) के दौरान तत्कालीन राम मंदिर को ध्वस्त कर दिया था। बताया जाता है कि उस काल में उस दौरान बाबर के सेनापति मीर बांकी व उसके सेनाओं ने करीब पौने दो लाख हिंदुओं का कत्लेआम किया था। बाद में, मन्दिर को पाने के लिए अंग्रेजी शासनकाल में हिंदुओं ने अदालती दरवाजे खटखटाये। समयकाल के न्यायाधीशों ने हिंदुओं के पक्ष में फैसला सुनाया लेकिन शांति व्यवस्था के लिए यथास्थिति को कायम रखने की बातें कहीं। अदालतों ने अपने फैसले में विवादित स्थल के बारे में हिंदुओं की आस्थाए, मान्यता और जनश्रुति का उल्लेख तो किया लेकिन अपने फैसले का आधार रिकार्ड पर उपलब्ध सबूतों को बनाया और शांति व्यवस्था की तत्कालीन जरूरत पर ज्यादा ध्यान दिया ।
फिर, आजाद भारत में लोअर कोर्ट से होते हुए मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा, जहाँ नवम्बर 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने सभी दस्तावेजों को ध्यान में रखते हुए मन्दिर के पक्ष में फैसला सुनाया। लेकिन, यह सब आसानी से नहीं हुआ। आजाद भारत में भी इस पर फैसला आने में 72 वर्ष लग गए। अदालती करवाई तो 1857 से ही शुरू हो गई थी। शिलालेख और सरकारी दस्तावेजों के मुताबिक यह मस्जिद  अयोध्या के रामकोट मुहल्ले में एक टीले पर लगभग पाँच सौ साल पहले हमलावर मुगल बादशाह बाबर के आदेश पर मीर बाकी ने बनवाई। मस्जिद निर्माण का काल 1528 से 1530 बताया गया है। लेकिन, कई वर्षों बाद हिंदुओं ने चबूतरा बना भजन पूजा करते थे ।
मस्जिद के रखरखाव के लिए मुगल काल नवाबी और फिर ब्रिटिश शासन में वक़्फ के जरिए एक निश्चित रकम मिलती थी। कई ब्रिटिश इतिहासकारों के अनुसार 1855 में नवाबी शासन के दौरान मुसलमानों ने बाबरी मस्जिद पर जमा होकर कुछ सौ मीटर दूर अयोध्या के सबसे प्रतिष्ठित हनुमानगढ़ी मंदिर पर भी कब्जे के लिए धावा बोला था।
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम ( 1857) भारत में मुगलशासन का अंत हुआ। ब्रिटिश शासन और न्याय व्यवस्था लागू हुई । ब्रिटिश काल में प्रशासन ने चबूतरे और मस्जिद के बीच दीवार बना दी लेकिन मुख्य दरवाजा एक ही रहा। अप्रैल 1883 में निमोर्ही अखाड़ा ने डिप्टी कमिश्नर फैजाबाद को अर्ज़ी देकर मंदिर बनाने की अनुमति माँगी, मगर मुस्लिम समुदाय की आपत्ति पर अर्ज़ी नामंजूर हो गई ।  दो साल बाद निमोर्ही आखाड़े के महंत रघबर दास ने चबूतरे को राम जन्म स्थान बताते हुए भारत सरकार और मुस्लिम पक्ष के खिलाफ सिविल कोर्ट में पहला मुकदमा 29 जनवरी 1885 को दायर किया । मुकदमे में 17 *21 फीट लम्बे-चौड़े चबूतरे को जन्मस्थान बताया गया और वहीं पर मंदिर बनाने की अनुमति माँगी गई ।
मौका मुआयना करने के बाद न्यायधीश पंडित हरिकिशन ने पाया कि चबूतरे पर भगवान राम के चरण बने हैं और मूर्ति थी, जिनकी पूजा होती थी । जज ने मस्जिद की दीवार के बाहर चबूतरे और जमीन पर हिंदू पक्ष का कब्जा भी सही पाया। निमोर्ही अखाड़े के महंत को चबूतरे पर मंदिर बनाने की अनुमति देने से न्यायाधीश ने यह कहते हुए इनकार कर दिया कि ऐसा करना भविष्य में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दंगों की बुनियाद डालना होगा।  फिर, जिला न्यायाधीश चैमियर की कोर्ट में अपील दाखिल हुईं।। उन्होंने फैसला सुनाते हुये कहा  जिस जगह को हिंदू पवित्र मानते हैं वहां मस्जिद बनाना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है । लेकिन चूँकि यह घटना 356 साल पहले की है इसलिए अब इस शिकायत का समाधान करने के लिए बहुत देर हो गई है ।
इसके बाद अवध के जुडिशियल कमिश्नर डब्लू यंग की अदालत में निमोर्ही अखाड़ा ने दूसरी अपील की । जुडिशियल कमिश्नर यंग ने 1 नवंबर 1886 को अपने जजमेंट में लिखा कि अत्याचारी बाबर ने साढ़े तीन सौ साल पहले जान-बूझकर ऐसे पवित्र स्थान पर मस्जिद बनाई जिसे हिंदू रामचंद्र का जन्मस्थान मानते हैं । इस समय हिंदुओं को वहाँ जाने का सीमित अधिकार मिला है और वे सीता-रसोई और रामचंद्र की जन्मभूमि पर मंदिर बनाकर अपना दायरा बढ़ाना चाहते हैं । बाद में,  1936 में मुसलमानों के दो समुदायों शिया और सुन्नी के बीच इस बात पर कानूनी विवाद उठ गया कि मस्जिद किसकी है! वक़्फ कमिश्नर ने इस पर जाँच बैठाई! मस्जिद के मुतवल्ली मोहम्मद जकी का दावा था कि मीर बाकी शिया था इसलिए यह शिया मस्जिद हुई ।
लेकिन जिÞला वक़्फ कमिश्नर मजीद ने 8 फरवरी 1941 को अपनी रिपोर्ट में कहा कि मस्जिद की स्थापना करने वाला बादशाह सुन्नी था और उसके इमाम तथा नमाज पढ़ने वाले सुन्नी हैं इसलिए यह सुन्नी मस्जिद हुई । इसके बाद शिया वक़्फ बोर्ड ने सुन्नी वक़्फ बोर्ड के खिलाफ फैजाबाद के सिविल जज की कोर्ट में मुकदमा कर दिया। सिविल जज एस अहसान ने 30 मार्च 1946 को शिया समुदाय का दावा खारिज कर दिया । यह मुकदमा इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि आज भी शिया समुदाय के कुछ नेता इसे अपनी मस्जिद बताते हुए मंदिर निर्माण के लिए जमीन देने की बात करते हैं। जब अंग्रेजी राज खत्म होने को आया तो हिंदुओं की तरफ से फिर चबूतरे पर मंदिर निर्माण की हलचल हुई लेकिन सिटी मजिस्ट्रेट शफी ने दोनों समुदायों के परामार्श से लिखित आदेश पारित किया कि न तो चबूतरा पक्का बनाया जाएगा न मूर्ति रखी जाएगी और दोनों पक्ष यथास्थिति बहाल रखेंगे । इसके बाद उत्तर प्रदेश सरकार को पत्र लिखकर फिर से मंदिर निर्माण की अनुमति राघव दास ने जुलाई 1949 में माँगी । उपसचिव केहर सिंह ने फैजाबाद डिप्टी कमिश्नर केके नायर से जमीन के बाबत रिपोर्ट मांंगी।
सिटी मजिस्ट्रेट गुरुदत्त सिंह ने 10 अक्टूबर को कलेक्टर को अपनी रिपोर्ट दी जिसमें उन्होंने कहा कि यह जमीन नजूल की है और मंदिर निर्माण की अनुमति देने में कोई रुकावट नहीं है। हिंदू वैरागियों ने अगले महीने 24 नवंबर से मस्जिद के सामने कब्रिस्तान को साफ करके वहाँ यज्ञ और रामायण पाठ शुरू कर दिया जिसमें काफी भीड़ जुटी। इसके बाद वहां पीएसी तैनात कर दी । नगरपालिका चेयरमैन प्रियदत्त राम को रिसीवर नियुक्त कर उन्हें मूर्तियों की पूजा और भोग वगैरह की जिÞम्मेदारी दी गई ।
16 जनवरी 1950 को गोपाल सिंह विशारद ने सिविल जज की अदालत में कहा कि जन्मभूमि पर स्थापित श्री भगवान राम और अन्य मूर्तियों को हटाया न जाए और उन्हें दर्शन और पूजा के लिए जाने से रोका न जाए । बाद में मामूली संशोधनों के साथ जिÞला जज और हाईकोर्ट ने भी अनुमोदित कर दिया ।कई साल बाद 1989 में जब रिटायर्ड जज देवकी नंदन अग्रवाल ने स्वयं भगवान राम की मूर्ति को न्यायिक व्यक्ति करार देते हुए नया मुकदमा दायर किया तब परमहंस ने अपना केस वापस कर लिया।
इसके बाद विश्व हिंदू परिषद ने मस्जिद का ताला खोलने के लिए फिर आंदोलन तेज किया और शिवरात्रि छह मार्च 1986 तक ताला न खुला तो जबरन ताला तोड़ने की धमकी दी।
 जन भावनाओं को संतुष्ट करने के लिए उत्तर प्रदेश की तत्कालीन कांग्रेस के मुख्यमंत्री वीर बहादुर ने विवादित स्थल के समीप करीब 42 एकड़ जमीन लेकर विशाल राम कथा पार्क के निर्माण का ऐलान किया और सरयू नदी से अयोध्या के पुराने घाटों तक नहर बनाकर राम की पैड़ी बनाने का काम शुरू किया लेकिन इससे हिन्दुत्ववादी संगठन संतुष्ट नहीं हुए।
माना जाता है कि इसी दबाव में आकर राजीव गांधी और उनके साथियों ने फैजाबाद जिÞला अदालत में एक ऐसे वकील उमेश चंद्र पांडे से ताला खुलवाने की अर्ज़ी डलवाई जिसका वहाँ लंबित मुकदमों से संबंध नहीं था। मजिस्ट्रेट और पुलिस कप्तान ने जिÞला जज की अदालत में उपस्थित होकर कहा कि ताला खुलने से शांति व्यवस्था कायम रखने में कई परेशानी नहीं होगी। बयान को आधार बनाकर जिÞला जज केएम पांडे ने ताला खोलने का आदेश कर दिया।    1990 में मुलायम सरकार की तमाम पाबंदियों के बावजूद 30 अक्टूबर को लाखों कार सेवक अयोध्या पहुँचे प्रशासन ने कारसेवकों पर गोली चलवा दी जिसमें कई कारसेवक मारे गए ।
हिन्दू संगठनों की तरफ से दिसंबर 1992 में फिर कारसेवा का ऐलान हुआ। उत्तरप्रदेश में भाजपा की कल्याण सिंह की सरकार थी। सरकार और विश्व हिंदू परिषद नेताओं ने सुप्रीम कोर्ट में वादा किया कि सांकेतिक कारसेवा में मस्जिद को क्षति नहीं होगी। 6 दिसंबर 1992 को कारसेवकों ने विवादित ढांचा को गिरा दिया। केंद्र की कांग्रेस सरकार ने यूपी सरकार को डिसमिस कर दिया। समयानुसार मामला अदालती कार्र्वाइ के दौरान उच्च न्यायालय पहुंचा। उच्च न्यायालय ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग से बाबरी मस्जिद और राम चबूतरे के नीचे खुदाई करवाई जिसमें काफी समय लगा
खुदाइ के बाद रिपोर्ट में कहा गया कि नीचे कुछ मंदिरों जैसे निर्माण मिले हैं। इसके आधार पर हिंदू पक्ष ने नीचे पुराना राम मंदिर होने का दावा किया है। दस्तावेज सबूतों के बाद 30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया। तीनों जजों ने यह माना कि भगवान रामचंद्र जी का जन्म मस्जिद के बीच वाले गुंबद वाली जमीन पर हुआ होगा। दीर्घकालीन कब्जे के आधार पर भगवान राम, निमोर्ही अखाड़ा और सुन्नी वक़्फ बोर्ड के बीच तीन हिस्सों में बाँट दिया, जिसे सभी पक्षकारों ने नकार दिया। मामला सुप्रीम कोट पहुंचा। 10 साल बाद नवंबर 2019 में  फैसला हिन्दू समाज के पक्ष में रहा।
(साभार)

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