Dainik Athah

मंथन: काशी के माध्यम से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का संदेश

काशी अर्थात वाराणसी को मैंने पिछले उेढ़ दशक से देखता आ रहा हूं। इससे पहले तो शायद काशी जाने का अवसर नहीं मिला था। तब की काशी एवं अब की काशी में जमीन- आसमान का अंतर स्पष्ट नजर आता है। अभी करीब एक माह पूर्व ही जब अब की काशी एवं काशी विश्वानाथ धाम को देखा तो एक बारगी यह विश्वास ही नहीं हुआ जिस काशी को हम वर्षों से देखते आ रहे हैं क्या यह वहीं काशी है। यह वहीं काशी विश्वनाथ धाम है। राम जन्म भूमि, श्री कृष्ण जन्म भूमि, सोमनाथ की भांति काशी का भी विध्वंस हुआ था। लेकिन जिस प्रकार एक के बाद एक सांस्कृतिक धरोहरों को सहेजा रहा है वह निश्चित ही बड़ा संकल्प है। काशी को बदलने का एक बड़ा काम कॉरिडोर पूर्ण हो चुका है। हालांकि अगले एक वर्ष तक उम्मीद है कि काशी विश्वनाथ धाम के सभी काम पूरे हो जायेंगे। काशी का इतिहास भारतीय संस्कृति की समृद्धि की जानकारी देने वाला इतिहास है। यह 11 वीं शताब्दी से 17 वीं शताब्दी के बीच भारतीय संस्कृति के प्रतीकों के विध्वंस एवं इसके पुननिर्माण के संघर्ष की कहानी भी है। मान्यता है कि भगवान शिव मां पार्वती के साथ सर्व प्रथम यहीं पर प्रकट हुए थे। यहीं कारण है कि द्वादश ज्योतिर्लिंगों में काशी विश्वनाथ को प्रथम स्थान प्राप्त है। आदि शंकराचार्य, अहिल्या बाई होल्कर, संत कबीर, संत रविदास, भगवान बुद्ध के कृतित्व एवं व्यक्तित्व से प्रेरित काशी मोदी के शब्दों में कहें तो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का संदेश है। यह प्रधानमंत्री मोदी के संकल्प का भी प्रतीक होगा। इसके सहारे प्रधानमंत्री तुष्टिकरण की नीति पर भी प्रहार कर रहे हैं। इसके साथ ही जिन अधिकारियों ने दृढ़ प्रतिज्ञ होकर इस काम को किया, जिनके ऊपर मोदी- योगी ने भरोसा जताया वे भी धन्यवाद के पात्र है। काशी के माध्यम से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का यह संदेश दूर तक जायेगा एवं इसका बड़ा प्रभाव भारत की राजनीति पर पड़ेगा।

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