मंत्री जी गये थे नमाज पढ़ने रोजे गले पड़े
प्रदेश सरकार के एक मंत्री जी के एक अल्पसंख्यक वर्ग के निष्ठावान कार्यकर्ता ने उनके क्षेत्र में लाइन के दूसरी तरफ स्वागत कार्यक्रम आयोजित किया। स्वागत मंत्री जी का था तो हजारों रुपये भी खर्च किये गये। लेकिन मंत्री जी तो ठहरे मंत्री। अपने भाषण के दौरान उन्होंने दांये हाथ की तरफ खड़े अपने एक समर्थक का हाथ पकड़ कर ऊंचा किया और कहने लगे आपके क्षेत्र में कोई समस्या हो, मेरे से संबंधित कोई बात हो तो इनको बतायें। जबकि हाथ आयोजक का उठाना था। अब अल्पसंख्यक वर्ग के नेताजी की स्थिति देखने लायक थी। जिसका हाथ उठाया उसी जाति के कद्दावर नेता भी वहीं थे। अब वे भी मंत्री जी से खफ हो गये। लेकिन आयोजक की जो गत उनके घर में पत्नी ने की उसके बारे में तो नेताजी किसी से कुछ कह भी नहीं सकते। दरबारी तो यहां तक कहते हैं कि आयोजक की पत्नी ने उस समय अपना गुस्सा उतारा जब मंत्री जी उनके घर दूसरे कमरे में नारश्ता कर रहे थे।
दावे जीत के पर मन में है खौफ…
देश की सबसे बड़ी पार्टी भले ही सत्ता में रहते हुए दोबारा जीत का दावा कर रही हो किंतु कार्यकतार्ओं की चचार्एं तो कुछ और ही है। फूल वाली पार्टी के नेहरू नगर स्थित कार्यालय पर पार्टी कार्यकर्ता आपस में बातचीत के दौरान कह बैठे की स्थिति अच्छी नहीं है। यदि साइकिल की सरकार आ गई तो कार्यकतार्ओं का जीना दूभर हो जाएगा। यही नहीं कार्यकर्ता इस कदर सहमे हैं कि पार्टी के एक बड़े नेता के यहां 13वीं रसम के दौरान जो पार्टी के नेता और पदाधिकारी शोक व्यक्त करने पहुंचे उनकी गाड़ियों से पार्टी के झंडे तक गायब थे। जो पार्टी का झंडा लगा कर हर जगह नहीं जा सकते वह कैसे जीत दिला पाएंगे। चर्चा के दौरान जैसे ही महानगर के अध्यक्ष वहां से निकलते हैं तो यह नेता जी अपनी चर्चा तुरंत बदल पार्टी हित की बात भी करने लगते हैं। अब आम लोग इन चचार्ओं से स्वयं ही अंदाजा लगा सकते हैं परदेस में कितनी मजबूत है सत्ता वाली पार्टी!
… हमें तो सुनना था, हमारी कौन सुन रहा
भाजपा की शनिवार को मैराथन बैठकों का आयोजन हुआ। इस दौरान कुछ बैठकों में जिसमें वरिष्ठ कार्यकर्ता अथवा जन प्रतिनिधि थे वहां तो एक- एक कर पूछा गया। यह भी पूछा क्या कर रहे हो। लेकिन अन्य बैठकों में पार्टी कार्यकर्ता केवल श्रोता की भूमिका में थे। ऐसे ही एक जिम्मेदार पद पर बैठे वरिष्ठ कार्यकर्ता से पूछा गया कि आपकी बैठक में क्या आपने कुछ सुझाव दिये। उनका थका सा जवाब था हमारी सुनने कोई नहीं आता। सब अपनी सुनाने आते हैं। अधिकांश बैठकों में कार्यकर्ता केवल श्रोता की भूमिका में रहते हैं। जबकि सुख दुख भी सुने जाने चाहिये। ठीक ऐसा ही जवाब कई अन्य कार्यकर्ताओं से मिला।