कविता ताउम्र ज़िन्दगी मुझसे पूछती रही खुद की बातें खुद से क्यो नही कही मेरी ख्वाहिशे भी अदा से मुस्कुराती रही रूह सच तो कहेगी , चाहे कड़वा ही सही रिश्ते निभाते हैं , तो सपने टूट जाते है सपने अपनाते है , तो अपने छूट जाते है ये कश्मकश ये ज़िन्दगी का सन्नाटा खुद पे खुद चहुँओर लिपट जाता बड़े नसीब वाले होते हैं वो जिसके हिस्से मे भी ये आ जाता क्योकि तन्हाई मे खुद से रूबरू होते है अपनी नजरो मे बेआबरू होते है थपेड़े पड़ते है अपने अक्स के वहाँ बड़ी से सोच मे सिमट जाता है सारा जहाँ हो जाता है एक अनायास रिश्ता खुद की रूह से खुद के ख्यालो मे बन जाता है एक अलग ही आशियां और जरूरी भी है खुद का खुद से रिश्ता होना नही तो अय्यार सा लगता है अपना नामोनिशां ।
संजय कुशवाहा की कलम से