Dainik Athah

अनोखी-कल्पना : “इनको नही पता”

 खुद को भी बेच दे, ये दुनिया ही है कुछ ऐसी,
 किस ख़याल में ज़िन्दा है, इनको नही पता। 


जिसको ये बोलते हैं, के शोहरत का शिखर है, 
वो कब सुरूर छोड़ दे, इनको नही पता। 


दीवानी क्यूँ है दुनिया, इन बेगानी राहों की,
किस मोड़ पर क्या कहानी है, इनको नही पता। 


हर सवाल का जवाब, वो हमसे ही मांगते हैं,
हमको जो कुछ पता है वो , इनको नही पता।


आवारगी की चाह में, वो तनहा हो गए, 
अब तन्हाई में क्या करें, इनको नही पता।


ज़बान की खामोशी को, कुछ अल्फ़ाज़ नही मालूम,
और क्या आवाज़ का अंदाज़ है, इनको नही पता।


खयालों के बादलों से, कुछ ख़्वाब मांगे थे,
उन्हें जज़्बात कैसे बनायें, इनको नही पता। 


हर चाह की, हर वक़्त क़द्र होती है नही, 
उस चाह का, उस वक़्त का, इनको नही पता। 


आसमां को छूने की, हिदायतें न दो इन्हें,
ज़मीन पर लौटना कैसे है, इनको नही पता। 


बे वजह बर्बाद क्यूँ ये शामें हो रहीं हैं,
क्या वक़्त का तक़ाज़ा है, इनको नही पता।


ढलते सूरज की परछाई में, वो चाँद भी दिखा,
कब दिन है और कब रात है, इनको नही पता। 


कुछ पुरानी यादों को तो, वो दफ़्न कर आए हैं,
अब ज़िन्दा ज़ख्म कैसे भरें, इनको नही पता। 


ज़िन्दगी और मौत का, ये खेल साफ है,
पर ज़िन्दगी क्या है, क्या मौत है, इनको नही पता। 

रचनाकार

अभिनव सक्सेना

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